Tuesday, November 15, 2011

किसी रात यूं भी लिखा था...


६ नवम्बर' २०११

आधुनिकता वादी होने का दावा करने वाले उन तमाम पुरुषों की तरह तुम्हें भी यही लगता है ना कि तुमने मुझे खुद जितनी ही आज़ादी दी हुई है? वैसे कुछ बहुत ग़लत भी तो नहीं कहते तुम्.. मैं हर वो चीज़ खरीद सकती हूं जो हमारे social status को suit करता हो, हर वो कपडा पहन सकती हूं जिसमें मेरे साथ चलते हुये तुम्हें कोई झिझक ना हो, व्वो सब कुछ लिख-पढ सकती हूं जो तुम्हारे male ego को ठेस ना पहुंचाये, भरे बाज़ारों में चलते हुये सिर ढंकने या झुकाने जैसी कोई बंदिश भी मुझ पर नहीं है.

मगर खुल कर हंसने की ये आज़ादी मुझे नाकाफी मालूम होती है, तुम तो बस मेरी उदासी को तुम्हारी कमीज़ तरबतर कर बह जाने का हक़ दे दो. मेरी सूरत ही तो मेरी सुन्दरता का पैमाना नहीं, मुझे तो बस मेरी तमाम सादगी के साथ कमसूरत लगने का अधिकार दे दो. समझदार बने रहने की कोशिश करते-करते मैं ऊब गई हूं, मुझे मेरी बेफिक्री और लापरवाही के साथ कमअक्ल बने रहने की इजाज़त दे दो...





८ नवम्बर'२०११

मुझे वो किताब बेहद याद आती है जो फकत इसलिये पुर्ज़ा-पुर्ज़ा कर के फेंक दी कि उसे पढते हुये तुम याद आते थे.

और आज.. आज जब तुम इतने करीब हो कि तुम्हारे चेहरे, चेहरे की हर लकीर को छू सकती हूं.. हर परत को टटोल सकती हूं तो ऐसा करते हुये अक्सर ये ख़याल आता है कि इस चेहरे की जगह वो किताब होती तो तुम्हारा अक्स कितना उजला होता मेरे ख़यालों में!!! तुम्हारा प्यार कितना पाकीज़ा रहता मेरी सोच में!!!

मगर अब वो किताब नहीं और अगर खुद को बहलाने की कोशिशें छोड कर देखूं तो वो पहले वाले तुम भी तो नहीं. बस तुम्हारा और उस किताब का अतीत है जिसे दोहराते हुये निगाहें और लब इतना थक चुके हैं कि ना आंसू शिकायत करते हैं ना बातें ही...





१० नवम्बर' २०११

मैं उस लडकी को जाती तौर पर बिल्कुल नहीं जानती, बस उसकी तस्वीरें देखीं हैं.. किस्से पढे हैं. मुझसे कुछ बरस बडी होगी शायद् उसके हर किस्से में मैं अपनी झलक देखा करती हूं. मैं अक्सर सोचा करती हूं कि अगर मुझे थोडी-सी.. ज़रा-सी आज़ादी और मिलती तो मएं ठीक उस के जैसी होती. मगर इस सब के बावजूद मैं उसे पसन्द नहीं करती. जाने कितने ही लोगों की बेवज़ह तारीफ करती हूं मगर उसके लिखे पर तारीफ का एक बोल भी नहीं जबकि वो उन चंद लोगों में से है जिनका लिखा कहीं गहरे तक धंस जाता है और कई दिनों तक अंदर ही अंदर घुलता-घुमडता रहता है.

जाने क्य़ूं उस लडकी से एक अज किस्म की ईर्ष्या है जिसमें घृणा के किसी भाव के लिए कोई जगह नहीं है.. कुछ कुछ वैसी ईर्ष्या जैसी शायद अपनी बहन से होती है.

खैर.. पिछले कुछ दिनों से लगने लगा है कि ग़र दुनिया के किसी एक शख़्स के लिये भी मन में मैल रखा तो ज़िन्दगी उजली नहीं हो पायेगी. बस इसलिये...

20 comments:

  1. निशब्द कर दिया तुमने......बहुत खूब सीधे दिल की गहरायी से बयां किया है हर शब्द स्वयम में अपने आप को परिभाषित करता है...

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  2. डायरी के ये पन्ने बहुत कुछ बयाँ कर जाते हैं...वाह...

    नीरज

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  3. पुरुष मानसिकता के बारे में अच्छा विवेचन

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  4. उफ्फ ... क्या गज़ब लिखा है ...

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  5. Hi..

    Aapki diary padhi..sahi kahti hain aap..akalmand. Hunarmand, saleekewali, samajhdaar, sundar hote hue jo pyaar, manuhaar aur anuraag koi paata hai kya vaisa prem beakal, behunar, besaleeke, nasamajh, aur asundar ko kabhi mil sakta hai..aapke prashn ne mere antarman main hulchal si macha di hai..main bhi ek purush hun..shayad maine bhi hamesha yahi apeksha ki hai..aapne haqeekat ko aaina dikhaya hai..akhrakshah satya..ye uub aur kheejh shayad jaroor janm leti hai aur vyakti shayad samajh ke bhi samajhna nahi chahta..

    Barhaal aapki lekhan shaily barbas akarshit karti hai..

    Aage bhi main aapke blog par yathasambhav apni upasthiti darz karta rahunga..

    Dhanyavad..

    Deepak Shukla..

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  6. गीत भी है , मीत भी है, प्रीत भी है डायरी
    हार भी ,मनुहार भी है , जीत भी है डायरी
    है मेरा दर्पण , समर्पण , डायरी तर्पण भी है
    सिसकियों का शोर तो संगीत भी डायरी.

    अद्भुत लेखन शैली.

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  7. मुझे तो बस मेरी तमाम सादगी के साथ कमसूरत लगने का अधिकार दे दो. समझदार बने रहने की कोशिश करते-करते मैं ऊब गई हूं, मुझे मेरी बेफिक्री और लापरवाही के साथ कमअक्ल बने रहने की इजाज़त दे दो...ये सिर्फ डायरी में लिखी पंक्तिया ही नही..... दिल को वो भाव है जिनसे हम रोज बहस करते है.... और सोचते-सोचते डायरी में लिख देते है..... आपकी डायरी पढ़कर कुछ नही है कहने को......

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  8. "ग़र दुनिया के किसी एक शख़्स के लिये भी मन में मैल रखा तो ज़िन्दगी उजली नहीं हो पायेगी"

    अंत की यह पंक्ति सारगर्भित और अपने आप मे सम्पूर्ण है।

    सादर

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  9. बहुत सुन्दर मोनाली.. बहुत सुन्दर... !

    डायरी लेखन बेहद ईमानदार होता है. आपके पास तो अच्छे शब्द भी हैं और साफगोई भी... बहुत सुन्दर.

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  10. मोनाली आप मेरे ब्लॉग तक कैसे पहुँच गई नहीं जानती, पर आपके उस पहुँचने ने मुझे आप तक पहुंचा दिया....भला ही हुआ .आपकी इस diary ने जेसे दबे अहसासों को जगा दिया.सच है ये तम्मनें कई बार सर उठाती hain.की मुझे वेसा ही रहने दो जेसी में हू,पर कोई दबाव ना होते हुए भी एक दबाव सा महसूस होता है दुनिया को दिखने लायक दिखने का,उन्हें भला लगे इस ढंग से हसने बोलने मिलने का.यही सच है शायद की जब हमे मिलता नहीं या हमारे पास होता नहीं तो हम दिखावा करने लगते है और ये बात सबसे ज्यादा प्रेम पर लागू होती है शायद,जिसे कमी महसूस होती है वो अपने आस पास एसा आभामंडल बना लेता है जैसे उसके पास ही प्रेम का खजाना हो बस.ठीक इसी तरह का दिखावा अपने व्यक्तिवा के लिए भी करने लगते हैं हम,पूर्णतः वह नहीं दिख पाते जो हम होते हैं....आपकी diary पढ़कर अच्छा लगा

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  11. bahut gahra likhti ho tum....tumhara likha bhi jaldi se dimag se utarta to nahi...khair.....vo irshya ki hetu vo ladki kahin me to nahi....ha.ha.ha.

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  12. मन के खट्टे , मीठे और तीखे हर विचार को समेटे डायरी के नोट्स ..... न लाग न लपेट .....

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  13. Bahut hi sunder...
    nih-shabd kar diya apne...
    dairy ka page bahut sunder hai...

    ek bat : apne kaha, "ab tum bhi to pahle jaise nahi rahe"...!
    kyo har koi yahi kahta hai... kya wastaw me log badal jate hain ya man ub jata hai??

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  14. Bahut hi sunder...
    nih-shabd kar diya apne...
    dairy ka page bahut sunder hai...

    ek bat : apne kaha, "ab tum bhi to pahle jaise nahi rahe"...!
    kyo har koi yahi kahta hai... kya wastaw me log badal jate hain ya man ub jata hai??

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  15. आपके पोस्ट पर आना बहुत बढ़िया लगा ! मेरे पोस्ट पर आपका निमंत्रण है । बेहतरीन प्रस्तुति!

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  16. ek bhaut gahre dard ka ehsaas dilati hai apki ye dayri ki kuch page......

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  17. बहुत सुन्दर डायरी नोट्स

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  18. 'ग़र दुनिया के किसी एक शख़्स के लिये भी मन में मैल रखा तो ज़िन्दगी उजली नहीं हो पायेगी. बस इसलिये...'
    गहरी बात है!

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