Saturday, November 27, 2010

आखिरी सीख...


मेरी लाडो... विदाई में तेरी बस ये ताकीद है मेरी
कि जो मैंने छीना है तुमसे, उसे तुम याद मत रखना
भले से पालो मेरे लिये कडवाहट, भले से माफ मत करना

हर सुबह खुशियों से सजाना...
पूरे दिन बेवज़ह मुस्कुराना..
और फिर काली रातों में टूट के बिखर जाना

महफिलों में खिलखिलाना...
रौनकों में जगमगाना..
और फिर ढूंढ कर के तन्हाई खुद में सिमट जाना

मांग के टीके की खातिर कई बाज़ारों में फिरना...
सुहाग के त्योहारों पर घण्टों तक सजना..
और फिर आईने के सामने आंसुओं में पिघल जाना

तुम खुद हर रोज़ चाहे टूटो..
तुम खुद हर रोज़ भले बिखरो..
हर ज़ख्म पर पर अप्ने मेरी कसम क मरहम रखना...
मेरी गुडिया बाबा की इज़्ज़त क भरम रखना...

माना मांगा है मैंने तुमसे जो है मुश्किल बडा ही
मगर खुद को मान कर मुर्दा, बस ताउम्र मेरी तरह...
हर रोज़ मर मर कर तुम भी जीती चली जाना...

मेरी लाडो... विदाई में तेरी बस ये ताकीद है मेरी
कि जो मैंने छीना है तुमसे, उसे तुम याद मत रखना
भले से पालो मेरे लिये कडवाहट, भले से माफ मत करना

Tuesday, November 23, 2010

मैं किस्से में बीती हूं...


सभी ये पूछते हैं मुझसे...
कि क्या मसरूफियत हैं मेरी?
भला दिन कैसे कटता है?

अब कैसे कहूं उनसे?
भला वो क्यूं कर मानेंगे?

कि दिन इस सोच में बीता
कि तुमको भूल गई हूं मैं,
और रातें...
...तुम्हारी यादों में!!!

कुछ पहर निकलते हैं सोचने में गुज़री बातें,
कुछ पहर निकल जाते, बातों से किस्से बनाने में!!!

ग़र कभी जुटा कर के मैं हिम्मत कह भी दूं किसी से ये,
तो कुछ हैरान होते हैं, कुछ रह जाते हैं बस हंस कर...
कुछ निकल कर दो कदम आगे,
बढ जाते हैं ये कह कर...

कि क्यूं बनाती हो बहाने तुम निकम्मापन छुपाने के???
भला ये इश्क़ मुश्क़ के किस्से होते हैं बताने के???

जोड के दो-चार शब्दों को कह देती हो तुम कविता...
कैसे भला मानें कि ये सब तुम पर है बीता???

मैं भी कभी हैरान...कभी परेशान होती हूं...
अब समझाऊं भी तो कैसे कि...

किस्सा मुझ पे नहीं बीता, मैं किस्से में बीती हूं

मैं तो गुज़रे ज़माने में ही रह गई थी कहीं पर...
आज में तो बस...
वो ज़माना दोहराने को जीती हूं...

Friday, November 19, 2010

प्रश्न???

ये कविता कुछ साल पहले लिखी थी मगर हालातों की बात करें तो आज ज़्यादा प्रासंगिक लगती है...इसके लिये प्रशंसा की उम्मीद खुद से बेईमानी होगी...बस share करना चाहती हूं..





प्रश्न???
हर दिन एक नये रूप में दिख जाता है
मथता है मेरे मस्तिष्क को...
इसको हल करना जटिल है
क्योंकि इसकी सोच कुटिल है
मेरी सोच को विस्तार देना इसका उद्देश्य नहीं
बस मुझे हरा देना चाहता है
मेरे होठों से छीन कर हंसी..मुझे रुला देना चाहता है
और इसलिये हर रोज़ विकराल रूप धर कर आता है..
कसता है जाल मेरी खुशियों के इर्द गिर्द..
और फिर कसता जात है इस जाल को तब तक्...
जब तक मेरी हंसी दम ना तोड दे

यूं तो मैंने इसे हराया है कई बार
मगर ये बात अब पुरानी है
ऐस तब होता थ जब मेरे साथ एक कुनबा औ कुछ दोस्त थे
जब मैं बिना दरे इन प्रश्नों से टकरा जाती थी
क्योंकि,
विश्वास था कि ग़र गिरी भी तो संभाल लेंगे वो
लेकिन्..अब ऐसा नहीं है

रोज़ एक नया प्रश्न मुझे हरा देता है
और मैं भी शायद हारने की आदि हो गई हूं
रोज़ हारती हूं...
टूटती हूं...
अब मैं डर की सहेली हूं..
कल तक जो मेरा संबल थे.. आज उन्हीं के कारण अकेली हूं

Friday, November 12, 2010

जिसके साथ सफर तय करना था
उसी ने मंज़िल से पहले बांहें छोड दीं

जिसके साथ छेडे थे तराने
उसी ने साज़ की धडकन तोड दी

संग जिसके जीने की आरज़ू थी
उसी ने जीवन की राह मोड दी

मैं नदी बन कर जिसमें समाना चाहती थी
उसी सागर ने साहिल की लकीर खींच दी

Tuesday, November 2, 2010

जीजी की आखिरी चिट्ठी...


"कुछ बोलती क्यूं नहीं? विनय कहां हैं? तु अकेली कैसे आ गयी ससुराल से?"
"मां जीजी को अंदर तो आने दो." मैंने जीजी का बैग हाथ से लेते हुए कहा
"निवी, कुछ तो बोल. कहीं झगड के तो नहीं आयी ना? देख बेटा झगडे हर जगह होते हैं मगर यूं कोई अपना घर छोड देता है क्या? तू सुन भी रही है?"

मगर जीजी बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली गयी. शायद जानती थी कि अगर बोलेगी भी तो कोई नहीं सुनेगा. और् इसी तरह बिना कुछ कहे एक दिन वो चली गयी.

आज हम सब को छोड कर उसे गुज़रे हुये उसे २० दिन हो गये हैं. उसके कमरे को अब भाभी के लिए खाली करना है. उसके लिए ही जब जगह नहीं थी तो उसके सामान के लिए कहां से आयेगी? तभी एक लिफाफा नज़र में आता है. कोई चिट्ठी है शायद...हां, मां के लिए जीजी की आखिरी चिट्ठी... मां ने उसे सबके सामने लाने को मना किया है. रात को मैं मां के कमरे में कांपते हाथों से वो चिट्ठी खोलती हूं...



मां... तुम्हें याद है हमारा बचपन? जब बाबा नये बस्ते लाये थे? मैं, छुटकी और दादा तीनों को ही वो लाल बस्ता पसंद था मगर वो मेरे हाथ नहीं आया क्योंकि छुटकी छोटी थी तो पहली पसंद उसकी थी और दादा बडे थे मगर तुम्हारी समझदार बेटी हमेशा से मैं ही थी. वो मेरा 'त्याग' का पहला सबक था या शायद तुम्हारी पहली कोशिश मुझे समझाने की कि ज़िन्दगी ऐसे ही कटेगी. और तब से हर दिन ही ना जाने कितने समझौते मैं करती चली गई. ना जाने मेरी कितनी ही चीज़ों से सब अपनी पसंद बीनते रहे और मैंने कभी नहीं जाना कि वो मुझसे क्या छीनते रहे. मैं तब भी त्याग शब्द के मायने से अनजान थी मगर हां कुछ चुभता ज़रूर था जिसे कभी ज़ुबान नहीं दे पाई.मगर दूसरों के लिए खुद की खुशी को नज़रअंदाज़ करने की आदत धीरे धीरे मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा बन गई.

और वो दिन तुम भूल सकती हो मगर मैं नहीं कि जब मैंने एम.ए. हिन्दी में करने की इच्छा जताई थी मगर ये डिग्री शायद बाबा के स्टेटस को match नही करती थी और फिर मैंने एम्.बी.ए. किया.मेरी बैक में नौकरी लगने के बाद वो गर्व से सबसे कहते थे कि उनके एक सही निर्णय ने मेरी ज़िन्दगी बना दी. बना दी या बिगाड दी इस बहस में तो मैं कभी पडी ही नहीं..मगर हां बदल तो दी ही थी.

मेरी पसंद तो शायद तिलांजलि देने की आदि हो चुकी थी मगर मेरे शौक को ये सीखना अभी बाकी था मगर सिखाने के लिए कई लोग मौजूद थे और मैं ये भी सीख ही गयी...


बस एक वो ही था जिसने कभी मुझे बदलने की कोशिश नहीं की, खुद ही बदला... वो भी मेरे लिए. और ऐसे में अगर मुझे उस से मुहब्बत हो गई तो इसमें कोई अनहोनी तो नहीं थी. मैं दिन रात सपने सजाने लगी थी उसके साथ घर बसाने के. ठान लिया था कि इस बार सबसे लड जाऊंगी. मगर शायद मैं खुद को जानती नहीं थी. तुमने बस एक बात कही और मेरे सारे सपने झुलस गये. पता नही तुम्हें याद है या नही मगर तुम्हारा कहा हर शब्द मेरे ज़ेहन में तरोताज़ा है.. "चुन लो अगर अपनी ग्रहस्थी की नींव में छुटकी का भविष्य देख सकती हो. सोचा भी है कि तुम्हारे ऐसा करने से उसकी शादी में कितनी मुश्किलें आयेंगी?"

इस एक बात के सिवा तुमने कुछ नहीं कहा और इस एक बात के बाद मैंने भी कुछा नहीं कहा.तुम मुझे कितना अच्छे से जानती थीं ना मां? तुम जानती थीं कि इतना भर कह देना काफी होगा मुझे मेरे सपनों की आहूति देने को विवश करने के लिए.

मैंने अपने प्यार को मेरी और विनय की शादी कि अग्नि में स्वाहा कर दिया.विनय जो तुम्हारी पसंद थे मगर ये शादी उनके लिये भी एक समझौते से ज़्यादा कुछ नहीं थी.

मगर सच कहूं तो तुम पर कभी गुस्सा नही आया क्योंकि तुम खुद ऐसी ही कई आहूतियां देती आई थीं. मेरे और मेरे जैसी हर लडकी के लिए उसकी मां ही तो ऐसे त्याग के आदर्श गढती है...


और बस आज जब ये ख़त लिख रही हूं तो मेरी और विनय की शादी को एक महीना तो हुआ है. मगर ये एक महीना मुझसे सब कुछ ले गया.. मेरी जीने की उमंग भी और मेरी वो बेटी भी जो शायद अपनी मां की आपबीती से डर कर मेरे गर्भ में ही दुबक गई.

नहीं, विनय ने कभी कोई दुर्व्यवहार नहीं किया मेरे साथ, कभी ऊंची आवाज़ में बात भी नही की. बस शादी के कुछ दिन बाद इतना भर कहा था कि उनकी मां के रहने तक ये घर मेरा है मगर मां के बाद मुझे जाना होगा जिससे उनकी पसंद मेरी जगह ले सके. और इसके बाद ना जाने क्यूं जैसे कुछ नहीं रहा. मैं.. जो अपनों की हर ज़्यादती को पीती रही.. उस शख्स से कैसे हार गई जिसे बस कुछ ही दिनों से जानती थी.

मन में कई बार आया कि उनसे पूछूं कि ये सब उस रात क्यूं नही कहा जब फूलों से सजे उस बिस्तर पर मेरे पहले प्यार ने आखिरी सांसें ली थीं? मगर इस सवाल का जवाब मन ने ही दे दिया.. "तुम उस रात मुझे नज़र का टीका लगाना जो भूल गयी थीं"

मैं जानती हूं कि तुम रो दोगी और अनचाहे ही तुम्हारे आंसुओं का ये कर्ज़ मेरे सिर पड गया है. इसे चुकाने को अगले जनम में फिर से तुम्हारी बेटी बन कर आऊंगी बस तब मुझे "त्याग" के मायने मत समझाना...


जीजी का वो ख़त उन सब सवालों के जवाब दे गया जो वो अपने पीछे छोड गई थी. मगर मां नहीं रोयी.. शायद इसलिये कि कहीं जीजी के सिर उसके आंसुओं का कर्ज़ ना चढ जाये...